लिखते जा |


कुछ लिखने का जी करता है |
क्या लिखूं समझ नहीं आता है |
काम करते करते तन और मन थक जाता है |
फिर भी दिल लिखने को कहता है |
दिल को कैसे समझाऊं जो हर वक़्त धड़कता है |
पर तन और मन आराम करना चाहता है |
मन कहता है सो जा |
दिल कहता है लिखते जा…

writer2

समय का चक्र तो हमेशा चलता है |
पर मनुष्य का जीवन तो रुकता है |
ज़िंदगी मे कई लोगों से मिलना होता है |
पर लिखने के लिए खुद से बात करना परता है |
लिखकर अत्यंत आनंद प्राप्त होता है |
लिखने के बाद मन भी खुश हो जाता है |
पर फिर भी ये लिखने से रोकता है |
मन कहता है सो जा  |
पर दिल कहता है लिखते जा |
और लिखते जा …

 – Ashish Kumar

26 thoughts on “लिखते जा |

  1. drowningwings

    i think every writer face this thing … putting your thoughts into paper ,gives satisfaction and automatically brings smile… 🙂 and listen to your heart..nice poem (y)

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