कौन करता है बार बार मेरे कानों में शोर |
क्यूँ मैं देता हूँ अपने दिल पे जोर |
मैंने तो दिया वो बंधन ही तोर |
पर बांधना चाहता हूँ फिर से वो डोर |
हर वक़्त मुझे सुनाई देती है वो शोर |
चाहता हूँ रहूँ दूर उस शोर से |
पर बार बार खिंचा चला जाता हूँ उसको ओर |
मन नहीं मानता दूर रहना उस शोर से |
कहाँ से आती है ये शोर |
बगैर इसके मैं रह नहीं पा रहा अब और |
मैं इसे पाना चाहता हूँ |
पर जब भी कोशिश करता हूँ हार जाता हूँ |
ये शोर नहीं एक डोर है जो मेरी ज़िन्दगी का एक सफलतम तोर है |
मुझे नहीं मालूम इसे मैं शोर क्यूँ कहता हूँ |
चाहता हूँ शोर |
इंतज़ार करता हूँ उस दिन का जब ये शोर मेरी ज़िन्दगी का एक डोर बन जाये |
पर क्या ये सच में मेरे लिए अभी एक ” शोर ” है ???
– आशीष कुमार